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प्र च्यवा॑नाज्जुजु॒रुषो॑ व॒व्रिमत्कं॒ न मु॑ञ्चथः। युवा॒ यदी॑ कृ॒थः पुन॒रा काम॑मृण्वे व॒ध्वः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra cyavānāj jujuruṣo vavrim atkaṁ na muñcathaḥ | yuvā yadī kṛthaḥ punar ā kāmam ṛṇve vadhvaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। च्यवा॑नात्। जु॒जु॒रुषः॑। व॒व्रिम्। अत्क॑म्। न। मु॒ञ्च॒थः॒। युवा॑। यदि॑। कृ॒थः। पुनः॑। आ। काम॑म्। ऋ॒ण्वे॒। व॒ध्वः॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:74» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! (जुजुरुषः) वृद्धावस्था को प्राप्त जन (च्यवानात्) गमन से (अत्कम्) व्याप्त (वव्रिम्) रूप और व्यभिचार का (प्र, मुञ्चथः) त्याग करते हो और (यदी) जो (युवा) युवावस्था को प्राप्त पुरुष के (न) समान कार्य्य को (कृथः) करते हो (पुनः) फिर (वध्वः) स्त्री के (कामम्) मनोरथ को युवावस्था को प्राप्त हुआ मैं (ऋण्वे) सिद्ध करता हूँ, वैसे आप दोनों (आ) सब ओर से करिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वृद्धावस्थाओं में रूप का त्याग करके वृद्धावस्था को प्राप्त होते हैं, वैसे ही दोषों के जाननेवाले गुणों का त्याग कर के दोषों को ग्रहण करते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे स्त्रीपुरुषौ ! जुजुरुषश्च्यवानादत्कं वव्रिं व्यभिचारं प्रमुञ्चथः यदी युवा न कार्यं कृथः पुनर्वध्वः कामं युवा सन्नहमृण्वे तथा युवामाकृथः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (च्यवानात्) गमनात् (जुजुरुषः) जीर्णावस्थां प्राप्तः (वव्रिम्) रूपम्। वव्रिरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०१.७)। (अत्कम्) व्याप्तम् (न) इव (मुञ्चथः) (युवा) प्राप्तयौवनावस्थः (यदी) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (कृथः) कुरुथः (पुनः) (आ) (कामम्) (ऋण्वे) प्रसाध्नोमि (वध्वः) भार्यायाः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । यथा वृद्धावस्थासु रूपं मुक्त्वा वृद्धावस्थां प्राप्नुवन्ति तथैव दोषज्ञा गुणांस्त्यक्त्वा दोषान् गृह्णन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे वृद्धावस्थेत रूप नष्ट होऊन वृद्धावस्था प्राप्त होते तसेच दोषी असणारे लोक गुणांचा त्याग करून दोषांचा स्वीकार करतात. ॥ ५ ॥